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लोकपाल बिल और दलित चिंतन

लोकपाल बिल के माध्यम से टीम अन्ना (किसन बाबुराव हजारे) ने पुरे देश में भ्रस्ताचार के खिलाफ जो एक जंग छेड़ रखी है , वह काबिले तारीफ है. जिस प्रकार से टीम अन्ना ने एक सुनियोजित तरीके से अपना बिगुल इस देश के ब्रस्ट मंत्री , नौकारशाई और सिस्टम के खिलाफ छेड़ा है , उससे पूरा का पूरा सरकारी तंत्र हिल गया है, सरकार कि नींद उड़ गयी है , कि अरे यह क्या हो रहा है, अभी तक तो हम पछ और विपछ के लोग मिलकर के भ्रस्ताचार का हिसाब किताब आपस में कर लिया करते थे , और आम जनता चिल्लाती रहा जाती थी पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता था? पर यह क्या अब हमारी कारगुजारी पर जनता कि निगाह रहेगी और हम सभी कि जगह जेल में होगी, क्यूंकि कमाई तो पछ और विपछ दोनों लोगो ने कि है तो अब क्या होगा, यही चिंता और बौखलाहट म सरकार कोई निर्णय नहीं ले पा रही कि क्या लोकपाल बिल माने या ना माने? इसी उहापोह म एक ७५ वर्षीय बृध कि जान पे बन आयी है और सरकार है कि तस से मास नहीं हो रही है? अचछा उद्देश्य है अन्ना जी और उनकी टीम का पर सवाल उनसे भी बाकि है , और वो सवाल दलितों का है? जिसका जवाब देना तो आसन नहीं है पर हाँ दलितों के सवाल

Naxal Problem in India

Naxal Movement started in 1960s, Charu Mazumdar and Sanu kanyal and others were the founding father of Naxal movement, that time these people were raised voice against discrimination between landlords and landless people, it was an ideological movement , the supporter of movement talking about problems of tribes, peasants and landless people, the movement believe in armed revolution against the governments policy and landlords too. That time they focused only landlords and government policy against poor people only, but now scenario has changed. Right now they targeted innocents’ people, women, children’s etc. in my perception the Naxal’s motto and gaol has totally changed, because if Naxal’s are very much concerned about society and also concerned about people’s who suffers from lots of discrimination. But what happen and why naxal's don’t have any kind of Blue print for the country, if they want to covered and control through his way of style, then why they don’t have any kin

ब्राह्मणवाद -नव ब्राह्मणवाद , बौध धर्म और दलित

ब्राह्मणवाद अर्थात ब्राम्हणों द्वारा बनाया गया एक ऐसा सिस्टम जो किसी ना किसी रूप में हिन्दू धर्म के सभी अनुयायियों में नहीं बल्कि भारत के दुसरे धर्मो म भी व्याप्त है . यह एक व्यापक बहस का मुदा भी है की आखिर ब्राह्मणवाद है क्या और कैसे ये अपने धर्म के साथ साथ दुसे धर्मो को भी अपने प्रभाव में लिए हुए है ? ब्राह्मणवाद एक विचार धरा के साथ साथ एक संस्कृति भी बन गयी है . यही कारण की जो लोग पानी पी पी कर ब्राह्मणवाद के साथ साथ ब्राह्मणों को भी गाली देते नहीं थकते अन्तोगत्वा उन लोगो में वही ब्राह्मणवाद पाया जाता है जिसके वे खुद शिकार है . अब ज़रा देखे की ब्राह्मणवाद है क्या व किस तरह यह समाज को प्रभावित करता है साथ ही साथ अन्य धरो को भी कैसे विकृत करता है . चूँकि ब्राह्मणवाद की जड़ वेदों और पुराणो से होकर जातिवाद में समाप्त हो जाती है . तो जब हिन्दू धर्म की पहचान उसके जातिवाद से होती है और जाती हर वर्ग की अपनी पहचान बन गयी है .

दलित (मायावती) मूर्तिकार बनाम सवर्ण नेहरु, गाँधी इत्यादी) मूर्तिकार

आज पुरे देश में जब महगाईं की बयार बह रही है लोग परेशान है की रोटी की जुगाड़ कैसे हो? ऐसे में मायावती का मूर्ति प्रेम वास्तव में इस देश के बुद्धजीवियो को यह जरुर सालता होगा की क्या लेडी है, पावर के नाम पे क्या सत्ता का दुरुपयोग किया जा रहा है कैसे जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा मूर्तियों और पार्को के नाम पे करोडो-करोड़ बर्बाद किया जा रहा है? सच है ऐसा नहीं होना चाहिए? बुद्धजीवियो की यह सोच जायज है! आखिर उन्हें चिंता हो भी क्यूँ ना आखिर ये लोग ही इस देश के सच्चे सुभ चिन्तक जो है, इन्ही बुधजीवियों की चिंता की वजह से हे तो कुछ समाज में जागरूकता आयी है? पर कुछ सवाल इन तथाकथित तमाम बुधजीवियों से भी बनता है? की जब महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी आदि तमाम नेताओ की मूर्तियाँ जब हर गली हर चौराहे पे लगाई जाती है तो क्या भारत देश में गरीबी ख़तम हो जाती है या ख़तम थी?, तब इन तथाकथित बुधजीवियों, समज्सस्त्रियों ने इतना हंगा क्यूँ नहीं बरपा, इतने कालम अख़बारों में क्यूँ नहीं लिखे गए? क्या वजह है की अगर मायावती ने अपनी मूर्ति बनवाई या आंबेडकर पार्क बनवाए तो समाज के तमाम शिल्पियों

ठाकुर अमर सिंह और उनका समाजवाद

अमर सिंह पटकथा का अब जबकि राजनितिक अंत (समाजवादी पार्टी में) हो चूका हैइ ऐसे में एक बात सामने खुलकर आ गयी है की सत्ता में रहकर समाजवाद का पानी पी पी कर दम भरने वाले लोगो का समाजवाद औरखांटी समाजवाद के बीच के समाजवाद का एक समग्र रूप से अवलोकन करना बहुत जरुरी हो गया है, जिससे आम जन मानस को कम से कम सामाजिक समाजवाद और राजनितिक समाजवाद को समझने ज्यादा कठिनाई का सामना न करना पड़े न ही वह लोगो के बहकावे में आ सके I अब देखते है अमर सिंह का समाजवाद क्या है? अमर सिंह वह अमर सिंह है जो कभी अपने आप को पक्का समाजवादी और लोहियावादी कहलाने में फक्र महसूस करते थे, शायद आज भी करते है I पर वास्तव अमर सिंह तब समाजवादी लोहियावादी हूवा करते थे जब ये समाजवादी पार्टी यानि की मुलायम सिंह की पार्टी में हुवा करते थे I लेकिन समाजवाद क्या है? या समाजवादी क्या होता है सिर्फ पार्टी का नाम समाजवादी रख देने से पार्टी समाजवादी हो गयी या पार्टी में जो लोग सामिल होते है वो समाजवादी हो गए , क्या इस देश में यही स्वरुप है समाजवाद का? मैं इस विषय को बताना जरुरी नहीं समझता की समाजवाद क्या ह

jaswant singh and BJP

जसवंत सिंह का पार्टी से निकला जाना यह साबित करता है का जिन्ना का भूत सिर्फ जसवंत के सर चढ़ कर हे क्यों बोला, और उनको आनन -फानन में पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से क्यूँ निकल दिया गया, जिन्ना को सेकुलर कहने वाले अकेले जसवंत सिंह हे तो पहले और आखिर नेता नहीं है, उनसे पहले बी ही तो आडवानी ने भी जीना को महान सेकुलर की उपाधि दी थी, उनको पार्टी से क्यूँ नहीं निकला गया, फिर जसवंत के बाद, सौरी का बयान फिर सुदरसन का बयान, उनपर बीजेपी आलाकमान चुप्पी कुओं लिए हुए है, इसी तरह, बंगारू लाक्स्मन को सिर्फ एक लाख रूपये के एवाज़ में पार्टी से निकल दिया गया, जबकि वही प्रमोद महाजन एक मामूली सी क्लर्क की नौकरी करते हुए पार्टी ज्वाइन की तथा उसने ऐसा क्या पार्टी के लिए कर दिया की वोह एक मामुले क्लर्क से हज़ार करोड़ का मालिक बन बैठा, तब पार्टी ने उसकी जमा पूंजी पे कोई संज्ञान क्यूँ नहीं लिया, सिर्फ कुछ ही लोगो को बलि का बकरा क्यूँ बनाती है, यदि उसकी निति और नियति साफ़ होती तो जो पार्टी की विचारधारा है वह सब पे एक सम्मान लागू होती , सिर्फ कुछ लोगो पर नहीं. असल में बात साफ़ है की जिस हिन्दुतवा की कल्पना बी

आज़ादी और आज़ादी क बदलते मायने

आज भारत स्वत्नता के ६० साल मन रहा है, आज के दिन हम सभी के लिए महत्वापूर्ण है , पर जरा ज़रा सोचिये की क्या अंग्रेजो क भारत को भारत के लोगो के हवाले कर देने से क्या भारत स्वतंत्र हो गया? क्या सन १९४७ के पहले भारत और बंगलादेस भारत से अलग थे, क्या इसी आजादी की कल्पना हमने की थी, तो खुद सोचिये की हमने क्या पाया आजादी पा के. अतः, जब कहने को तो कहते है की भारत आजाद तो हो गया पर क्या आपको ऐसा नहीं लगता की अनगेरजो के हाथ निकलकर भारत फिर उन तमाम जमीदारों और प्रोदोगिक घरानों क हाथो म आ गया , जो जब चाहे जैसे चाहे नियम कानून बनाते है, चाहे उनका सरोकार भारत के उन तमाम नागरिको के सुख सुविधावों से हो या न हो, उन्हें क्या क्या फर्क पड़ता है क्या ऐसी ह आजादी चाहते थे हम? सच तो भारत सिर्फ उन लोगो के लिया आजाद हुवा है जिनको वास्तव म अंग्रेजो ने दुखी कर रखा था, सामान्य जनता तो आज भी उन सब चीजो के लिए सुबह से लेकर शाम तक संघर्स करती है! तो सोचने की बात यह है की किसको आज़ादी मिली और कौन आज़ाद हुवा? यकीनन वही आज़ाद हुवे जो अपने को अंग्रेजो क नियम और कानूनों म बंधा और जकड़ा हुवा महसूस करते थे, तो वो (जमीद