आज़ादी और आज़ादी क बदलते मायने

आज भारत स्वत्नता के ६० साल मन रहा है, आज के दिन हम सभी के लिए महत्वापूर्ण है , पर जरा ज़रा सोचिये की क्या अंग्रेजो क भारत को भारत के लोगो के हवाले कर देने से क्या भारत स्वतंत्र हो गया? क्या सन १९४७ के पहले भारत और बंगलादेस भारत से अलग थे, क्या इसी आजादी की कल्पना हमने की थी, तो खुद सोचिये की हमने क्या पाया आजादी पा के. अतः, जब कहने को तो कहते है की भारत आजाद तो हो गया पर क्या आपको ऐसा नहीं लगता की अनगेरजो के हाथ निकलकर भारत फिर उन तमाम जमीदारों और प्रोदोगिक घरानों क हाथो म आ गया , जो जब चाहे जैसे चाहे नियम कानून बनाते है, चाहे उनका सरोकार भारत के उन तमाम नागरिको के सुख सुविधावों से हो या न हो, उन्हें क्या क्या फर्क पड़ता है क्या ऐसी ह आजादी चाहते थे हम? सच तो भारत सिर्फ उन लोगो के लिया आजाद हुवा है जिनको वास्तव म अंग्रेजो ने दुखी कर रखा था, सामान्य जनता तो आज भी उन सब चीजो के लिए सुबह से लेकर शाम तक संघर्स करती है! तो सोचने की बात यह है की किसको आज़ादी मिली और कौन आज़ाद हुवा? यकीनन वही आज़ाद हुवे जो अपने को अंग्रेजो क नियम और कानूनों म बंधा और जकड़ा हुवा महसूस करते थे, तो वो (जमीदार और पूजीपति ) आज़ाद हो गए और जैसे चाहे और जो चाहे करे और करते है. आज क भारत और पिछले ६० साल के भारत में बुनियादी क्या समानताये और फर्क है, जाहिर सी बात है की भारत ने प्रोदोगिकी के छेत्र में उन्नति कर ली है पर क्या सामाजिक छेत्र म बी उन्नति कर पाया है? तो मेरा उत्तर है क नहीं भारत आज बी पिछले ६० साल वाला पुराना भारत है, क्यूंकि भारत म आज भी छुवाछुत, जातवाद, भाई - भतीजावाद हावी है, आज बी लोगो को अपने जातीय अहंकार से संतुस्ती मिलती है, आज आज़ादी (सिर्फ कहने को) क ६० साल के बाद बी लोगो अ अपने जातीय तर्कों को सही ठरती है और जो समाज जातीय संरचना में (हिन्दू धर्म के अनुसार) अपने को बहूत पीछे मानती उसका आत तक कोई उद्धार नहीं सका, आज भारत अपने को सेकुलर कहने और मानव को मानव मानने में का चैम्पियन मानता है , जिसकी कानून में भी ब्यवथा है की जातीय आधार अपर और धार्मिक अधर कोई पछ्पात नहीं होगा ? पर भारत जगह -जगह जात पंचायत खुले प्रशाशन के सामने चलती हैऔर उनके निर्णय बी लोगो पर लागु होती है (हलाकि ज्यादातर न्र्ने अमानवीय होते है ), इसी तरह नेता गन बी जगह जातीय अधर अपर जातीय रैली खुले आम अक्र्ते करते है, तलवारे भेट की जाती है वो बी खुले आम, क्या एस जातीया विसंताओ वाले देस में जिसको कुछ लोग जन्म से श्रेस्ठ है और जो जन्म के आधार प न सही पर कर्म के अधर पर योग्य है, तो क्या ऐसे प्रदशानो को और ऐसी अपन्चय्तो को अमानवीय कृत्या करते हुए सही ठहराया जा सकता है, नहीं कभी नहीं. संविधान के अनुसार देश का कानून एक होगा और उसके लिए संविधान को मानना हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है, और संविधान ही देस का सर्वोच्च कानून है, पर नहीं एस देश में न तो संविधान सर्वोच्च न ही देस कानून सर्वोच्च है, यदि कुछ सर्वोच्च है जो देश के कानून और संविधान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं तो वो व्यक्ति ki जाती जिसके आगे हर कानून मौन और बौना हो जाता है , भारत में आज भी सर पे मैला धोने का काम बदस्तूर जरी है, आज १०० रुपये और २०० रुपये महीना प लोग काम करते है. तो क्या यही आज़ादी है?तो आईये हम आजदी के सही मूल्य एन लोगो स पूछे की आज़ादी क्या है ? पर क्या ऐसा हो सका? सच hai की जिसको आज़ादी मिली हो पर इस देस का एक बहुत बड़ा तब्कता आज़ादी क मायने बी नहीं जनता!शर्म आणि उन तमाम मानव अधिकार प्रेमियों को जिन्होंने मानव की गरीमा और मानव मूल्यों को सिर्फ चुनाव की वोट बैंक तक ही सिमित रखा और उनके विकास और पढाई-लिखाई कभी भी पूर्ण रूप से धयान नहीं दिया? शर्म आनी चाहिए उन तमाम मानव अधिकार प्रेमियों को जिन्होंने मानव की गरीमा और मानव मूल्यों को सिर्फ चुनाव की वोट बैंक तक ही सिमित रखा और उनके विकास और पढाई-लिखाई कभी भी पूर्ण रूप से धयान नहीं दिया न ही उनके दुःख दर्द को समझने की कोसिस की अगर कुछ किया भी तो उनिकी दशा सुधरने के लिए नहीं बल्कि पोपुलर वोट बैंक की राजनीती की, तो देश आजाद तो हो गया लेकिन किसको क्या हासिल इस आजादी से अब उसका re evaluate करने का समय आ गया है व हमको एक बार फिर वापस ६० साल जाना होगा और देखना होगा किस्से और कैसे हमसे छुक हुई और क्या वजहे है जिनकी वजह से ऐसा हुवा , उनकी जड़ पे जाकर उन तम कारणों कापता लगाया जय और उन पर काम किया जाए तथा ऐसी किसी भी विक्रति को दूर किया जाये जिससे समाज में विक्रितीय न उत्पन्न हो तथा देश बी उन्नति के मार्ग पर अग्रसररहे समाज के लिए साथ हे पर ऐसा तभी संभव जब हम दिल और दिमाग से सवस्थ हो तथा किसी भी प्रकार की मानसिकता से ग्रसित न हो , यदि भारत को आगे बढ़ना है तो जातीय संकिर्ताओ से उपर ठाना होगा (किसी प्रकार के जातीय रिले व जातीय पंचायतों का पूर्ण वहिस्कर होना ह चैये व द्दंड का भी विधान होना चाहिए ) व मानसिक संकिर्ताओ से भी आगे जाना हो व मानव मानव मानना ही होगा और जब ऐसी फीलिंग हममे आ जायेगी तो यकीनन इस देस को इस देस के एक-एक व्यक्ति को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता वरना तारीख याद रखिये २६ जनवरी और १५ अगस्त और खुस रहिये की देश बहुत आगे बढ़ चूका है और खुद को और देस को भी गलत फहमी में जीने दीजिये.....अंतिम सब्द.......लोकतंत्र का मतलब "सब न की मैं" !

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