ब्राह्मणवाद -नव ब्राह्मणवाद , बौध धर्म और दलित

ब्राह्मणवाद अर्थात ब्राम्हणों द्वारा बनाया गया एक ऐसा सिस्टम जो किसी ना किसी रूप में हिन्दू धर्म के सभी अनुयायियों में नहीं बल्कि भारत के दुसरे धर्मो भी व्याप्त है . यह एक व्यापक बहस का मुदा भी है की आखिर ब्राह्मणवाद है क्या और कैसे ये अपने धर्म के साथ साथ दुसे धर्मो को भी अपने प्रभाव में लिए हुए है? ब्राह्मणवाद एक विचार धरा के साथ साथ एक संस्कृति भी बन गयी है. यही कारण की जो लोग पानी पी पी कर ब्राह्मणवाद के साथ साथ ब्राह्मणों को भी गाली देते नहीं थकते अन्तोगत्वा उन लोगो में वही ब्राह्मणवाद पाया जाता है जिसके वे खुद शिकार है. अब ज़रा देखे की ब्राह्मणवाद है क्या किस तरह यह समाज को प्रभावित करता है साथ ही साथ अन्य धरो को भी कैसे विकृत करता है. चूँकि ब्राह्मणवाद की जड़ वेदों और पुराणो से होकर जातिवाद में समाप्त हो जाती है. तो जब हिन्दू धर्म की पहचान उसके जातिवाद से होती है और जाती हर वर्ग की अपनी पहचान बन गयी है. चूँकि प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय ब्राह्मणों का ही वर्चास्वा रहा है चाहे वह समाजीक क्षेत्र रहा हो राजनितिक, आर्थिक या सिक्षा का छेत्र सभी जगह इन्हों लोगो का होल्ड है , तो जब एक सिस्टम बनाया तो जाहिर सी बाटी है की ये अपने को तो अन्य लोगो की अपेक्षा ज्यादा तरहीज देंगे हे देंगे यही कारण है की हिन्दू धर्म में जातीय विसंगतिय इतने व्यापक पैमाने पे पाई जाती है की लोग जानवर से लेकर पत्थरों में भी भगवान तलाशते है जगह जगह ब्राह्मणों के उपदेश, वेदों- पुराणो को कोट कर करके कितने ही मार्मिक तरीके से इन धर्मं ग्रंथो का बखान किया जाता है मानो इसके मानने वाले और सुनने वाले कितने पवित्र आत्मा है , ये कोइ गलत काम करते ही नहीं है, पर जरा गौर कीजिये ये उपदेशक जब इनका उपदेश ख़तम हो जाता या बीच में ही कोई दलित भी अपना कुछ वक्तव्य देना चाहे तो इन्ही धर्मं ग्रंथो की दुहाई देकर कैसा उसके साथ अमानवीय व्यवहार करते है तब जो दर्शक दीर्घा अर्थ जो प्रवचन सुनने को आये थे उनका तत्काल उस निरीह दलित पर कहर बनकर टूटता है, तो क्या ऐसा धर्मं ग्रन्थ कहते की व्यक्ति का व्यक्ति के साथ भेदभाव इस अमानवीयता के साथ होना चाहिए.............हाँ यही है ब्राह्मणवाद और यही है हिन्दू धर्म की असली पहचान जिसके ततः इंसान को इन्सान समझान एक भयंकर भूल समझा गया है. दुनिया में ऐसा कही और विरला उदहारण नहीं होगा जहां अपने ही धर्मे के लोगो को इतना गिराया गया हो और बात करते है नैतिकता और धर्मं की , बात करते है धर्म और अधर्म की.पर डरने की कोई बात नहीं क्यूंकि यही है हिन्दू धर्म की असली पहचान और यही ब्राह्मणवाद जो असमानता में ही विस्वास करता है . खैर ये तो ब्राह्मणवाद है और ये तो असमानता में विस्वास करेगा ही.

पर अब बात की जाए उन लोगो की जो इस दंस (ब्राह्मणवाद) से ग्रसित है , अर्थात वो तबका जो अपने आपको ब्राह्मणवाद का अभिशाप मानता है , जिसको जातीय संरचना में सबसे नीचे के पायदान पे रखा गया है, इस वर्क का दर्द यह है हिन्दुजम ने उसका सत्यानाश कर दिया, उसको दुसरो की गुलामी के सिवा अपने विकास के लिए नातो समय दिया गया ना ही इस लायक समझा गया की वो भी इन्सान है. पर जरा इन सताए हुए लोगो की जानिए, ये वही तक दुखी जहां तक ये सताये या परेशान किये गए है, पर इनका भी सुख तब बढ़ जाता है जब ये भी तथाकथित ब्रह्मणवादी मानसिकता के तले अपने कमजोर वर्ग (जातीय आधार पर) पर वही रवैया अपनाते है जो एक ब्रह्मण एक नीची जाती पर अपनाता है, तो क्या हम सिर्फ इस आधार पर ब्राह्मणों को गली दे के अपनी इति श्री कर सकते है की इन्होने अतीत में वर्तमान में आपके साथ बहूत छल किया इसलिए ये गाली के पात्र है? क्या इतना कर लेने से दलित सुदर समाज अपनी बुल्नादियों को छू लेगा, या जिस व्यवस्था से वह अपने को ग्रसित मानता है दबा कुचला मानता है उससे उबेर पायेगा? सबसे बड़ा सवाल की हर वर्ग जब अपनी व्यवस्था से इतना संतुस्ता है तो फिर ब्राह्मणवाद का विरोध क्यूँ? यदि ब्राह्मणवाद से विरोध है तो जातीय आधार पर अपने वर्ग के लो लेबल वाले के साथ भेदभाव क्यूँ? यही कारण है ब्राह्मणवाद के जिन्दा रहने के, क्यूंकि हम जाती व्यवस्था का या ब्रह्मणवाद का वही तक विरोध करते है जहां तक हमें उससे नुक्सान है अर्थात ब्राह्मणवाद पूरी तरह ख़राब नहीं है इन दलितों और सुद्रों के लिए भी यही कारण है हिन्दू धर्म के पहरेदार बन के उनको गर्व का अनुभव हो रहा है........................

अब बात की जाए उन नव-बौधों की जिन्होंने बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर की तरह अपने आप को बुद्धिस्म में कोन्वेर्ट तो कर लिया पर बुधिजम के सिन्धान्तो से पूरी तरह अपने आपको आताम्सात नहीं कर सके. बाबा साहब ने जब हिन्दू धर्म को त्याग कर बौध धर्म अपनाया था तब उनके सामने इस बात की मजबूरी थी की जिस धर्म म पैदा हुए जिसमे पाले बढे उसी धर्म ने हमेसा उनको और उनके समाज को पूरी तरह से नीच समझा , साथ ही साथ ना ही उनके काम को सराहा ना ही सम्मान दिया इसी छोभ में डॉ. आंबेडकर यह सोचने में मजबूर हुए की ऐसे धर्म में जीने का क्या फायदा, जिसमे जानवरों से लेकर के पत्थरों तक की पूजा होती है , वही एक इन्सान जिसको ब्राह्मणवाद के तहत दलित का तमगा देकर्के उसको हर अधिकार से वंचित कर दिया गया व उसको व उसकी मेहनत व किसी काम की कोई महत्वा ही ना समझा जाए. इसी छोभ के कारण बाबा साहब धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य हुए, धर्मं परिवर्तन से पहले उन्होंने तमाम धर्मो का अध्ययन किया तत्पश्चात उन्होंने बौध धर्म को चुना, साथ ही साथ उन्होंने दलित समाज से यह कहा की अगर सम्मान के सह जीना है तो आपको हिन्दू धर्मं त्यागना होगा, जिसका तात्कालिक प्रभाव दलित समाज के बहूत बड़े हिस्से पे पड़ा और उन्होंने ने भी बाबा साहब की भांति बुध धर्म को अपनाया, पर समय के साथ साथ इसमे विसंगतियां आती गयीं और आज के जो नव-बौध है वे कही ना कही हिन्दू धर्म की तमाम रुढियों को गर्व के साथ धो रहे है, और इन नव-बुधो में पढ़ा लिखा वह तबका ज्यादा है जो ना तो ठीक ढंग से बुधिजम को समझ पाया है ना ही हिन्दू धर्म को, ऐसे में इन नव-बौधों ने दलित समाज को सिर्फ मिस गाइड ही किया , इन नव-बुधो में बाबा साहब के विचारों के साथ साथ बुधिसम को अपने तरह से परिभाषित किया है, एक तरफ जहां ये नव-बौध हिन्दू धर्म की जातीय विसंगतियों में विस्वास रखते है व उसी तरह से भेदभाव करते है जैसे अन्य लोग (ऊँची जातियां ) करते है, ये भी हिन्दू धर्मं की तमाम गैर बराबरी में विस्वास करते जैसे हिन्दू धर्म करता है, लेकिन यदि बात फायदे की और बाबा साहब के उपर बोलने की हो या बहुध धर्म के बारे में कुछ कहने को हो या हिन्दू धर्म के खिलाफ बोलने का मामला हो तो ये तथाकथित बुध्जीवी इतना बोलते हैं की विस्वास ही नहीं होता की यह वही व्यक्ति है जो इतना कुछ जानते हुए भी कैसे दुसरे हाथ से हिन्दुसम की बागडोर संभल rakhi है व अपने वर्ग के साथ धोका कर रहा है, तो कहने मतलब यह की बाबा साहब के बाद जीने भी लोग बुध धर्मं के अनुयायी हुए है उन सबमे कही ना कही किसी ना किसी प्रकार का लाभ लेने के लालच से ही अपने आप को बुध धर्म के अनुयायी बने हुए है वरना बुध की वाणी क्या है, आंबेडकर का मिसन क्या था क्या इनको समझ में नहीं नहीं आया, सब समझ में आता है , पर दलित इतना चालक हो गया है की उसको विचारधारा से कोई मतलब नहीं बल्कि किस तरफ से किसको कितना फायदा मिले या मिलेगा यही तक उसकी सोच सिमट कइ रह गयी है, वरना जिस मोमेंट को बाबा साहब के बाद दिन दूना बढ़ना चाहिए वह समाज आज खुद भी जातीय विसंगतियों को आत्मसात करके अपने से कमजोर तबके या निम्न जात के साथ वही व्यवहार करने लगा है जिसका कभी वह शिकार था. आज पढ़ा लिखा दलित युवा भी अपनी जातीय संरचना से बहूत खुस नजर आ रहा है व अपने अपने ही जाती के पेरीफेरी में बाँध करके अपने को प्रोग्रेससिवे साबित करने के लिए व अपने को लिबरल साबित करने के लिए नाम मात्र के लिए बुध व आंबेडकर की तस्वीरों को अपने घरों की दीवारों में टांग जरुर रखा है , पर असल में वह उपासक हिन्दू धर्म का है , काली और और दुर्गा का है ना की आंबेडकर या बुध का. इस प्रकार देखा जाए तो हम आँख मुंड करके कह सकते है की दलित समाज तथाकथित बुध्जीवीयों ने डॉ आंबेडकर के अथक मेहनत और प्रयासों को अपनी आर्थिक जरूरतों का हिस्सा तो बना लिया पर उनके विचारो से दुरी बना ली, आर्थिक लाभ के तहत वह सत्ता के गलियारों से लेकर के वह नौकरशाही तक अपना मुकाम जरुर बना लिया पर जिस चिंतन मनन की जरुरत दलित समाज को आज भी सबसे ज्यादा जरूरत है उससे कही ना कही अपने आप को दूर कर लिया, आंबेडकर के कथन के हिसाब से , आर्थिक गुलामी से भी बह्यंकर होती है मानसिक गुलामी. आज फिर से दलित समाज को सोचना है की वह कहाँ खड़ा है.

Comments

  1. मैंने आपके कई लेख पढ़े,सारे के सारे बहुत रोचक और महत्वपूर्ण है.....बात बिलकुल सही है आज दलित समाज में से ही कुछ लोग ऐसे है जो संपन्न और समृद्ध होने के बाद उसी दलित समाज के और गरीब लोगो के साथ ठीक वैसा ही व्यहवार करते है जैसे ब्राम्हण दलितों के साथ पहले करते थे.....इन पढ़े लिखे और समृद्ध दलितों को समझना होगा की आप भी एक तरह के ब्रम्हान्वाद को ही जन्म दे रहे है.....सरे दलितों को एक होने की जरुरत है

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आज़ादी और आज़ादी क बदलते मायने

jaswant singh and BJP