दलित (मायावती) मूर्तिकार बनाम सवर्ण नेहरु, गाँधी इत्यादी) मूर्तिकार
आज पुरे देश में जब महगाईं की बयार बह रही है लोग परेशान है की रोटी की जुगाड़ कैसे हो? ऐसे में मायावती का मूर्ति प्रेम वास्तव में इस देश के बुद्धजीवियो को यह जरुर सालता होगा की क्या लेडी है, पावर के नाम पे क्या सत्ता का दुरुपयोग किया जा रहा है कैसे जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा मूर्तियों और पार्को के नाम पे करोडो-करोड़ बर्बाद किया जा रहा है? सच है ऐसा नहीं होना चाहिए? बुद्धजीवियो की यह सोच जायज है! आखिर उन्हें चिंता हो भी क्यूँ ना आखिर ये लोग ही इस देश के सच्चे सुभ चिन्तक जो है, इन्ही बुधजीवियों की चिंता की वजह से हे तो कुछ समाज में जागरूकता आयी है? पर कुछ सवाल इन तथाकथित तमाम बुधजीवियों से भी बनता है? की जब महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी आदि तमाम नेताओ की मूर्तियाँ जब हर गली हर चौराहे पे लगाई जाती है तो क्या भारत देश में गरीबी ख़तम हो जाती है या ख़तम थी?, तब इन तथाकथित बुधजीवियों, समज्सस्त्रियों ने इतना हंगा क्यूँ नहीं बरपा, इतने कालम अख़बारों में क्यूँ नहीं लिखे गए? क्या वजह है की अगर मायावती ने अपनी मूर्ति बनवाई या आंबेडकर पार्क बनवाए तो समाज के तमाम शिल्पियों की आँखे चका चौधियाने लगी की अरे यह क्या हो रहा है, लोग भूके मर रहे और सूबे (उत्तेर प्रदेश) की मुख्यमंत्री महोदया मूर्ति पर मूर्ति, पार्क पे पार्क बनवाए जा रही है, आखिर समाज के तमाम पढ़े लिखे लोगो को यह दर सताने लगा की अगर मायावती जी का यह मूर्ति प्रेम अनवरत जरी रहेगा तो उससे क्या-क्या नुक्सान हो सकता है.
पर यह तमाम बुद्धिजीवी उस वक्ता कहाँ चले गए थे जब जगह-जगह नेहरु गाँधी व अन्य ऐसे ही अन्य तमाम खानदानो की मूर्तियाँ हर चौराहे गली मोहल्ले में लगी हुई है व बराबर लग रही है तब क्यूँ इतना हो हल्ला नहीं मचता क्यूँ? जब जगह-जगह मंदिर के नाम पे जमीन हडपी जाती है और उसपे किसी भी सकल और सूरत की मूर्ति बिठा दी जाती और उसे भगवान का रूप दे दिया जाता है तब वातावरण को कोई नुक्सानक्यूँ नहीं होता , बाला जी तिरुपति के मंदिर में रोज करोडो का चढ़ावा चढ़ता है तब उसे राजकीय कोष में जमा करवाने की बात क्यूँ नहीं की जाती आखिर क्यूँ ये तथाकथित चिंतित आत्माए इतना हल्ला ऐसे मुद्दों पे क्यूँ नहीं मचाते क्यूँ?
क्या कभी किसी ने सुना है की नेहरु या गाँधी की मूर्ति पे किसी ने जूतों या चप्पलो की मालाएं पहनाई है, या इनकी प्रतिमाओं को छत विछत किया हो, कभी नहीं सुना होगा, मैंने तो कभी नहीं सुना , पर यही पर दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव आंबेडकर की तमाम जगहों पे मूर्तियाँ तोड़ी, उनकी मूर्तियों के साथ अपमानजनक छेड़-छाड़ यहाँ तक उनकी मूर्तियों पर जूतों और चप्पलो की मालाएं पहनाई गयी तब इन भुद्धाजिवियों ने कौन से लेख लिखे कौन सा आन्दोलन खड़ा किया? तो फिर ऐसा क्या है की दलित के द्वारा किया गया कार्य किसी को पसंद नहीं आता ? तो इसका कारण हिन्दू धर्म की वो जातीय संरचना है जिसकी संकीर्णता से ये तथाकथित बुधजिवी चाहे वह राजनितिक हो या सामाजिक हो या शिक्षाविद ही क्यूँ ना हो, इनके सोचने और समझने का दायरा बहुत छोटा है.! मैं दावे के साथ यह कहता हूँ की ये बुधजिवी (राजनितिक, सामाजिक, शिक्षाविद ) जिनके कंधो पर (सिर्फ कहने को ) समाज का दायित्वा है की ये लोग देश और समाज को सही दिशा और सही नीति निर्धारण में अपना सहयोग करेंगे , पर इन्होने कभी भी अपने दयितों का निर्वाह नहीं किया और मुझे पूरा विस्वास है की ये कभी करेंगे भी नहीं क्यूंकि ये लोग भी जातीय सरंचनाओ व रुढ़िवादियों के तले दबे है,
यदि हिन्दू धर्म के जातीय सरंचना को देखे तो हम पाते की यदि आपका कोई लाबी नहीं है तो अप हर जगह पिछड़े है जैसे की आपने भारत रत्न का वितरण के सालो को देखेंगे की श्रीमती इंदिरा गाँधी को भारत रत्ना १९७१ में मिल जाता व आंबेडकर को १९९० में और एक साल बाद ही १९९१ में राजीव गाँधी को वही पुरस्कार मिलता है. तो मुझे तो लगता है बुद्धजीवियों ने उस समय ज्यादा ध्यान नहीं दया वरना डॉ. अम्बेद्को भारत रत्ना राजीव गाँधी के सुपुत्र राहुल गाँधी के बाद देने की सोची जा सकती थी .पर जरा सोचिये तो सही क्या मापदंड तय किये गए है भारत रतन के लिए जिनके आधार पर वह औरों अपने से उम्र म छोटे यहाँ अक जीवित ना रहते हुवे भी औरों से बाद में मिलता है , पर कोई बात दलित होना सबके बस की बात नहीं क्यूंकि यह दुखो को जीना और गमो का पहाड़ सीने में दबाये रखकर आगे की और देखना और आगे बढ़ना शूरवीरों का परिकाहायक है ना की कायरों का, ऐसे में दलित समाज किसी से किसी पुरस्कार की उम्मीद क्यूँ करे, उसकी मूर्ति क्यूँ और लोगो के सहारे छोड़ा जाए, खुद बनायेगे और दिखाएंगी की देखो दुनिया वालो हम किसी से कम नहीं और ऐसे ही दलित सपूतोऔर उसके लोगो के जजबो को दुनिया देखेगी और देख रही है उन्ही में से एक है मायावती. तो जब दलितों के मसीहा जिनकी वजह से यदि करोडो-करोड में से एक मायावती पैदा हुई वो भी राजनीती के साथ साथ समाज की भी अछि मर्मज्ञ है तो जिस समाज से वह निकली उसकी चिंता वह नहीं करेगी तो कौन करेगा या ऐसे दकियानूसी विचारधारा के लोग करेंगे जिन्होंने इतना पढ़ लिख लेने के बावजूद अपने दिमाग की गंदगी साफ़ नहीं कर पाए और चले है मायावती की मूर्ति व आंबेडकर पार्क का विरिध करने, यदि विरोध करना ह है तो पहले जानत-पांत . छुवा-छुट को मिटना होगा , समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों को समाप्त करना होगा, इन्सान को इन्सान समझान होगा और जिस यह बुध्जिवे ऐसा काम अपने घर से सुरु करेनेगे तब समाज के विषय में सोचे तब दलित समाज भी मायावती कीमूर्तियों के बारे म भी सोचेगा वरना इन तथाकाठी बुधजीवियों को अब यह तो मानना ही होगा दलित समाज जिसको इन्होने कभी भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया अपने दम अपनी मेहनत और डॉ. आंबेडकर के अमर विचारो से ओत प्रोत हो के आगे बढ़ रहा है जिसको अब कभी भी कोई हरा नहीं सकता
- आर्थिक नुक्सान
- सामाजिक नुक्सान
- वातावरण को नुक्सान
पर यह तमाम बुद्धिजीवी उस वक्ता कहाँ चले गए थे जब जगह-जगह नेहरु गाँधी व अन्य ऐसे ही अन्य तमाम खानदानो की मूर्तियाँ हर चौराहे गली मोहल्ले में लगी हुई है व बराबर लग रही है तब क्यूँ इतना हो हल्ला नहीं मचता क्यूँ? जब जगह-जगह मंदिर के नाम पे जमीन हडपी जाती है और उसपे किसी भी सकल और सूरत की मूर्ति बिठा दी जाती और उसे भगवान का रूप दे दिया जाता है तब वातावरण को कोई नुक्सानक्यूँ नहीं होता , बाला जी तिरुपति के मंदिर में रोज करोडो का चढ़ावा चढ़ता है तब उसे राजकीय कोष में जमा करवाने की बात क्यूँ नहीं की जाती आखिर क्यूँ ये तथाकथित चिंतित आत्माए इतना हल्ला ऐसे मुद्दों पे क्यूँ नहीं मचाते क्यूँ?
क्या कभी किसी ने सुना है की नेहरु या गाँधी की मूर्ति पे किसी ने जूतों या चप्पलो की मालाएं पहनाई है, या इनकी प्रतिमाओं को छत विछत किया हो, कभी नहीं सुना होगा, मैंने तो कभी नहीं सुना , पर यही पर दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव आंबेडकर की तमाम जगहों पे मूर्तियाँ तोड़ी, उनकी मूर्तियों के साथ अपमानजनक छेड़-छाड़ यहाँ तक उनकी मूर्तियों पर जूतों और चप्पलो की मालाएं पहनाई गयी तब इन भुद्धाजिवियों ने कौन से लेख लिखे कौन सा आन्दोलन खड़ा किया? तो फिर ऐसा क्या है की दलित के द्वारा किया गया कार्य किसी को पसंद नहीं आता ? तो इसका कारण हिन्दू धर्म की वो जातीय संरचना है जिसकी संकीर्णता से ये तथाकथित बुधजिवी चाहे वह राजनितिक हो या सामाजिक हो या शिक्षाविद ही क्यूँ ना हो, इनके सोचने और समझने का दायरा बहुत छोटा है.! मैं दावे के साथ यह कहता हूँ की ये बुधजिवी (राजनितिक, सामाजिक, शिक्षाविद ) जिनके कंधो पर (सिर्फ कहने को ) समाज का दायित्वा है की ये लोग देश और समाज को सही दिशा और सही नीति निर्धारण में अपना सहयोग करेंगे , पर इन्होने कभी भी अपने दयितों का निर्वाह नहीं किया और मुझे पूरा विस्वास है की ये कभी करेंगे भी नहीं क्यूंकि ये लोग भी जातीय सरंचनाओ व रुढ़िवादियों के तले दबे है,
यदि हिन्दू धर्म के जातीय सरंचना को देखे तो हम पाते की यदि आपका कोई लाबी नहीं है तो अप हर जगह पिछड़े है जैसे की आपने भारत रत्न का वितरण के सालो को देखेंगे की श्रीमती इंदिरा गाँधी को भारत रत्ना १९७१ में मिल जाता व आंबेडकर को १९९० में और एक साल बाद ही १९९१ में राजीव गाँधी को वही पुरस्कार मिलता है. तो मुझे तो लगता है बुद्धजीवियों ने उस समय ज्यादा ध्यान नहीं दया वरना डॉ. अम्बेद्को भारत रत्ना राजीव गाँधी के सुपुत्र राहुल गाँधी के बाद देने की सोची जा सकती थी .पर जरा सोचिये तो सही क्या मापदंड तय किये गए है भारत रतन के लिए जिनके आधार पर वह औरों अपने से उम्र म छोटे यहाँ अक जीवित ना रहते हुवे भी औरों से बाद में मिलता है , पर कोई बात दलित होना सबके बस की बात नहीं क्यूंकि यह दुखो को जीना और गमो का पहाड़ सीने में दबाये रखकर आगे की और देखना और आगे बढ़ना शूरवीरों का परिकाहायक है ना की कायरों का, ऐसे में दलित समाज किसी से किसी पुरस्कार की उम्मीद क्यूँ करे, उसकी मूर्ति क्यूँ और लोगो के सहारे छोड़ा जाए, खुद बनायेगे और दिखाएंगी की देखो दुनिया वालो हम किसी से कम नहीं और ऐसे ही दलित सपूतोऔर उसके लोगो के जजबो को दुनिया देखेगी और देख रही है उन्ही में से एक है मायावती. तो जब दलितों के मसीहा जिनकी वजह से यदि करोडो-करोड में से एक मायावती पैदा हुई वो भी राजनीती के साथ साथ समाज की भी अछि मर्मज्ञ है तो जिस समाज से वह निकली उसकी चिंता वह नहीं करेगी तो कौन करेगा या ऐसे दकियानूसी विचारधारा के लोग करेंगे जिन्होंने इतना पढ़ लिख लेने के बावजूद अपने दिमाग की गंदगी साफ़ नहीं कर पाए और चले है मायावती की मूर्ति व आंबेडकर पार्क का विरिध करने, यदि विरोध करना ह है तो पहले जानत-पांत . छुवा-छुट को मिटना होगा , समाज में व्याप्त तमाम बुराइयों को समाप्त करना होगा, इन्सान को इन्सान समझान होगा और जिस यह बुध्जिवे ऐसा काम अपने घर से सुरु करेनेगे तब समाज के विषय में सोचे तब दलित समाज भी मायावती कीमूर्तियों के बारे म भी सोचेगा वरना इन तथाकाठी बुधजीवियों को अब यह तो मानना ही होगा दलित समाज जिसको इन्होने कभी भी आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया अपने दम अपनी मेहनत और डॉ. आंबेडकर के अमर विचारो से ओत प्रोत हो के आगे बढ़ रहा है जिसको अब कभी भी कोई हरा नहीं सकता
शानदार तरीके से आपने दलित नेतृत्व के मुद्दे को लोगो के सामने प्रस्तुत किया है ,वाकई आप प्रशंशा और बधाई के पात्र है....मरे ख्याल से ये काम कोंग्रेस को करना चाहिए था,पर उनकी उदासीनता से ही मायावती ने इसका बीड़ा उठाया,वो एक शानदार और दबंग दलित नेता है,जिसने सवर्णों को ये बताया की "हम किसी से कम नहीं".....
ReplyDeletethank you Satish g.. ki aapne meri lekhni aur mere kaam ko saraha...thank you once again
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